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जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर.
( १९ )
आप सज्जन बखूबी सोच सकते हो कि आज जो जैनधर्म स्वल्प मात्र अर्थात् जैन जातियों में ही जैन धर्म रह गया, जिस का दोष क्या हम हमारे परमोपकारी जैनाचार्य पर लगा सक् हैं ? अपि तु कभी नहीं । कारण आचार्यश्री रत्नप्रभसूरिने न तो आज की भान्ति अलग अलग जातियों बनाई थी और न किसी जातियों को धर्म का ठेका भी दिया था कि अमुक जातियों के सिवाय, कोई भी जैन धर्म को पालन ही नही कर H 1
वास्तव में आचार्यश्रीने तो भिन्न २ वर्ण व जातियों में विभक्त हो जनता अपने अमूल्य शक्तियों और जीवन नष्ट कर रही थी, उन को अधर्म से मुक्त कर समभावी बना के महाजन संघ की स्थापना कर उन का दिन प्रतिदिन रक्षरण पोषण कर वृद्धि करी थी । हम तो आज भी छाती ठोक दावे के साथ कह सक्ते हैं कि जैन धर्म का द्वार प्राणीमात्र के लिए खुला है. किसी भी वर्ण जाति के भेद भाव विना कोइ भी भव्यात्मा जैन धर्म को स्वीकार कर आत्मकल्याण कर सक्ते हैं, और हम उन के सहायक हैं
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जो जैन धर्म जातियों मात्र में ही रह गया. उन का काररण हमारे पूर्वाचार्य नहीं, पर खास तौर पर हम ही है कारण:(१) हमारे आचार्यों ने उच्च नीच के अभिमान को हटाया था, हमने उन को पुनः धारण कर लिया, जिस का ही यह कटुक फल है कि जैन धर्म जैन जातियों में रह गया ।