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सूरीश्वरजी का उपदेश.
( २३ )
समान वह नहीं हो सक्ता अर्थात् प्राणदानके सामने पूर्वोक्क सवेदान तुच्छवत् है । कारण जिस समय प्रारण ही नष्ट हो रहे हो । उस समय सुवर्ण रत्नादि किस कामके ? इस लिये विद्वानों को चाहिये कि नरक जैसे घोर दुःखदायी गती को प्राप्त करानेवाली हिंसाका परित्याग कर प्रतिज्ञापूर्वक अहिंसा भगवतीकी आराधना द्वारा स्वर्ग - मोक्षके अनंत सुखोंके अधिकारी बनें !
आचार्यश्री का निष्पक्ष, निडर, हितकारी और मधुरता - पूर्ण वचन श्रवण कर वह घुडसवार तो अपना दुष्कृत्य प्रति मन ही मन पश्चात्ताप करने लगा । उनके भव्य - चहेरे पर एक प्रकारकी ऐसी ग्लानि छा गई मानो जीवहिंसा प्रति संपूर्ण घृणा उत्पन्न हुई हो । वह एकाएक दीर्घ निःश्वास फेंक कर बोला कि - हे महात्मन ! आजपर्यन्त हमको जितने उपदेशक मिले हैं या हमने जिन २ महानुभावोंकी संगत की है वह सब हमारे समान शिकार करनेवाले और मांस मदिराका सेवन करनेवाले ही थे न - किं आपके समान निस्पृही और परोपकारी थे । मैंने तो अपने सारे जीवनमें आप जैसे निःस्वार्थी, परोपकार परायण साधु पुरुष आज ही देखा और उपदेश भी आज ही सुना ।
आचार्यश्री ने कहा- महानुभावो ! संगतकी असर प्रायः सभी मनुष्यों पर हुआ करती है । अतः अब 'गतं न शोचामि ' इस नियमानुसार गत बातों का शोच - पश्चात्ताप करना छोड कर भविष्य का सुधार करना यह मनुष्यकी प्रथम फरज है । कारण