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________________ (२२ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचचा. हिये प्रत्युत यथाशक्ति रक्षण-पोषण करना बुद्धिमान मनुष्यों की फरज है । अपना प्राण अपने को जैसा प्यारा है उसी माफिक सभी जीवों को अपने अपने प्राण प्यारा है। . सर्व जगतके जीव अपना दीर्घायुष चाहते है; मरने को कोई भी जीव खुशी नहीं हैं । इस वास्ते उनकी इच्छाके प्रतिकुल उनको मारना महान् घोर पाप है । और पाप का फल मरक गति सिवाय दूसरा नहीं होता । देखीये, भगवान श्रीकृष्णने क्या फरमाया है: यथा मम प्रियाः प्राणाः तथा तस्यापि देहिनः । इति मत्वा प्रयत्नेन त्याज्यः पाणिवधो बुधैः । हे युधिष्ठिर ! जैमा मेरा प्राण मुझे प्यारा है वैसे ही सर्व प्राणी मात्रको अपना प्राण प्यारा है । इस प्रकार समझ कर प्रयत्न पूर्वक बुद्धिमानों को जीवहिंसा का परित्याग करना चाहिये अर्थात् जीवोंकी रक्षा करो । कारण कि मरते हुए जीवोंकी रक्षा करना-बचाना इसके बराबर कोइ भी. धर्म या दान नहीं है । जैसा कि: यद् दद्यात् काश्चनं मेरुं कृत्स्नं चापि वसुन्धराम् ।। सागरं रत्नपूर्ण वा न च तूल्यामहिंसया ॥ .. अगर कोई दानीश्वर सुवर्णका मेरु, संपूर्णपृथ्वी पोर रत्नपूरित समुद्रका. दान कर दे तथापि एक प्राणीके प्राणदानके
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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