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जैन जाति महोदय. अर्ज करी कि हे प्रभो ! हमारे भाईयोंको आज्ञा दो कि में भोजन लाया हु सो वह करके मुझे कृतार्थ करे भगवान्ने फरमाया कि हे राजन् ! मुनियोंके लिये बनाया हुवा भोजन मुनियोकों करना नहीं कल्पता है इस पर भरत बडा उदास हो गया कि अब इस भोजनका क्या करना ? उस समय इन्द्रने फरमाया कि हे भरतेश यह भोजन आपसे गुणी हो उसको करवा दीजिये तब भरतने सोचा कि मैंतो अव्रती सम्यक्दृष्टि हूं मेरेसे अधिक गुणवाले देशव्रती है तब भरतने देशव्रती उत्तम श्रावकोकों बुलाके वह भोजन करवा. दीया और कह दीया कि आप सबलोक हमेशा यहां. ही भोजन कीया करो बस फीर क्या था ? सिधा भोजन जीमनेमें कौन पीछा हटता है फीरतो दिन व दिन जीमनेवालो कि संख्या इतनी वडने लगी कि रसोया गभरा उठा भरत महाराजकों अर्ज करी तब भरतने उन उत्तम श्रावकों के हृदय पर कांगनी रत्नसे तीन तीन लीक खांचके चिन्ह कर दीया मानो वह " यज्ञोपवित” ही पहना दी थी भोजन करने के बाद उन श्रावकोंको भरतने कह दीया कि तुम हमारे महेल के दरवाजा पर खडे रह के. हरसमय “जितो भगवान वर्द्धते भयं तस्मान्माहन माहने" एसा शब्दोच्चारन किया करो श्रावकोंने इसको स्वीकार कर लीया. इसका मतलब यह था कि भरतमहाराज सदैव राजका प्रपंच व सांसारिक भोगविलासमें मग्न रहता था जब कभी उक्त शब्द सुनता तब सोचता था कि मुझे क्रोध मान माया लोभने जीता है और इनसे ही मुझे भय है इससे भरतको बडा भारी वैराग्य हुवा करता था जब वह श्रावक