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________________ ऐतिहासिक प्रमाण. ७ ) कि भगवान् महावीर और पार्श्वनाथके समय में भारतवर्ष में ईश्वरविषयक उपर्युक्त मान्यता चिरप्रचलित हो चुकी थी तब भी जैनदर्शन में इसका बिल्कुल स्वीकार नहीं हुआ हैं. इससे यह बात पाई जाती है कि जैनदर्शन तत्व ईश्वरीय मान्यताके प्रचलित होने के पहिले ही निश्चित हो चुके थे । जैनधर्म में ईश्वरविषयक मान्यता अन्य दर्शनोंसे निराले ढंग की है । जैनदर्शन में मुख्यवृत्त्या जीव और अजीव अथवा चेतन और जब ये दो पदार्थ माने गये हैं, जीव अनन्त हैं, देव, मनुष्य, पशु, नारक विगैरह देहवारियोंमें प्रत्येक जुदा जुड़ा जीव हैं, सृष्टिके प्रत्येक देहधारीका जीव वा आत्मा अनन्त ज्ञानमय और शक्तिमय है, परंतु उसका ज्ञान व शक्ति कर्मके जोर से दबी रहती है ज्यों ज्यों जीव सत्प्रवृत्ति द्वारा आवरणोंका नाश करता हैं त्यों त्यों उसकी ज्ञानादि प्रात्मिक शक्तियां विकसित होती है. शुभप्रवृत्ति द्वारा आत्मिक - aणों (कर्मों) का क्षय कर श्रात्माका संपूर्ण विकास करना यही जैनदर्शन में श्रात्मोन्नतिसाधक कार्यों का साध्यबिन्दु माना गया है, इस नियम अनुसार जो मनुष्यात्मा अपनी संपूर्ण उन्नति कर चुकना हैं अर्थात् ज्ञानादि शक्तियां संपूर्ण उन्नति कर पाता है तत्र जैनपरिभाषामें उसे ' केवली ' वा 'जिन' कहते है, जुदे जुदे युगमें जिस विशिष्ट केवली के हाथसे जैनधर्मका पुनरुद्धार अथवा नयी स्थापना होती है उसको ' तीर्थकर ' कहते है, विशिष्ट केवली ( तीर्थकर ) अगर सामान्य केवली जब देहादि संपूर्ण कर्मफलांशों से मुक्त हो जाते है तब उन्हें सिद्ध कहते है, जैनशास्त्र इन्ही सिद्धोंको और कभी
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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