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________________ (८) जैन जाति महोदय. कभी कंवलीयोंको भी ईश्वर मानते है, क्योंकि ईश्वर शब्दका वाच्यार्थ ' सामर्थ्य ' संपूर्णतया विकसित हो जानेके कारण ये ईश्वर कहलानेके योग्य है. ऐसे सिद्ध अनन्त है और भविष्यमें अनन्त होंगे, ये अनन्त शक्ति-ऐश्वर्यसंपन्न होने पर भी सृष्टिग्चनादि किसी भी दुनियवी खटपटों में नहीं पडते, वे कभी अवतार नहीं धारण करते और दुनियाके भले बुरेमें कुछ भी भाग नहीं लेते, यह अनन्तरोक्त जैनदर्शनका सिद्धान्त बहुत ही प्राचीन है। भारतवर्षर्म सबसे प्राचीन ' जीवहेवस्वरूप' धर्म होनेका विद्वानोंका प्रतिपादन जैनधर्मको बराबर लागू होता है, क्योंकि अर्हन् कंवली विगैरह देहधारि पुरुषोंको देव माननेकी प्रथा जैनदर्शनमें अनादिकालसे बराबर चली अाती है । ( जैन धर्मकी महत्ता) ( ७ ) जैनदर्शनकी चेतनवाद संबंधी मान्यता भी बहुत ही प्राचीन है. प्रत्येक देहधारीमें और वनस्पति मिट्टी विगैरहमें चेतन-जीव माननेका जैनधर्मका सिद्धान्त सृष्टिके सबसे पुराने धर्मका सिद्धान्त है. यह जैनदर्शनके सिवाय किसी भी दर्शनमें नहीं पाया जाता, और यह मान्य कोइ धार्मिक विश्वासमात्र ही नहीं है किन्तु विज्ञानशास्त्रसिद्ध सत्य सिद्धान्त है. डॉ. आ. पग्टोल्डने भी अपने एक व्याख्यानमें यही अभिप्राय दर्शाया है जिस्का कुछ अंश नीचे दिया जाता है--" आ मतने निःसंशय असल इतिहासनो प्राधार मले छे. तो पण ' नीति ' ए विषय उपर हेस्टिंग्स साहेबना ग्रन्थमां अने प्रो. जेकोबीना निबन्धमां " जैनधर्मे पोताना केटलाक मतो प्राचीन जीवहेवना धर्ममांथी लीधेला होवा जोइये " एवं कहेतुं
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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