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बलमित्र और भानुमित्र. ( १८१) ___ मौर्य मुकुटमणि त्रिखण्डभुक्ता महाराजा सम्पतिने जैन धर्म की बहुत उन्नति की । जैन इतिहासकारोंने इन्हें अनार्यदेश तक में जैन धर्म प्रचार करनेवाले अन्तिम राजर्षि की योग्य एवं उचित उपाधि दी है । सम्प्रति नरेश का इतिहास सुवर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । आप की धवन कीर्ति आज भी विश्वभर में ध्यापक है । पाप का नाम जैन साहित्य में सदा के लिये अमर है। जैन राजाभों में आप का आसन सर्वोच माना जाता है। सम्प्रति राजाने जो उपकार जैन समाजपर किया है वह भूला नहीं जा सकता । अन्त में राजा सम्प्रतिने पञ्चपरमेष्टि नमस्कार महामंत्र का आराधन करते हुए समाधी मरण को प्राप्त किया।
सम्प्रति के देहान्त होनेपर उज्जैन की गद्दीपर बलमित्र और भानुमित्र आरोहित हुए । ये दोनों व्यक्ति सम्राट अशोक के सुपुत्र बृहद्रथ के चतुर मंत्री थे । यह उज्जैन ही के निवासी तथा जैन धर्मोपासक थे । राजा सम्प्रति के कोई पुत्र नहीं था अतएव जैनधर्म के श्रद्धालु और परम भक्त बलमित्र और भानुमित्र को जैन धर्म प्रचारक होने के कारण राज्य सिंहासन प्राप्त हुआ । वे युगल वीर राज्य प्रबंध करने में बड़े चतुर थे । इन्होंने राजा सम्प्रति के फैलाए हुए धर्म को उसी प्रकार रखने की खूब कोशिश की। इन्होंने अपनी प्रबल युक्तियों से बढ़ते हुए बौद्धधर्म को बढ़ने न दिया तथा जैनधर्म को खूब प्रकाशित किया ।
बलमित्र और भानुमित्र के पश्चात् उज्जैन की गहीपर नभ