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________________ ( १९८) जैन जाति मडोदय प्रकरण पांचवा. धार कर मुनियों को दृष्टिवाद अंग का अभ्यास करावेंगे तो यह अंग भी अस्तित्व रूप में रह सकेगा। दो मुनि इस हेतु नेपाल देश की ओर भेजे गये । उन्होंने जा कर भद्रबाहु स्वामी को संघ का संदेश सुना दिया । प्राचार्य भीने कहा कि मुझे इस समय अवकाश नहीं है। मैंने हाल ही में "प्राणायाम " महाध्यान का भारम्भ किया है। अतएव मैं आ नहीं सकता अन्यथा मुझे किसी भी प्रकार से इन्कार नहीं करना था । साधु लौट कर वापस मगध श में आए । श्रीसंघने सम्मिलित हो कर निश्चय किया कि एक बार साधुओं को भेज कर यह भी पूछा लो कि जो व्यक्ति संघ की प्राज्ञा नहीं मानता है उस से संघ क्या प्रायश्चित करावे । साधुनोंने नेपाल में जाकर पूछा कि संघ की आज्ञा का उलंघन करनेवाला किस व्यवहार के योग्य है ? प्राचार्य श्री भद्रबाहु स्वामीने फरमाया कि वह व्यक्ति संघ में नहीं रहना चाहिये । वह संघ से च्युत समझा जाय | साधुओंने तब आप से कहा कि आपने भी संघ की भाज्ञा अस्वीकार की है क्या आप भी इसी प्रायश्चित के भागी हैं ? प्राचार्यश्रीने कहा कि निसंदेह यह नियम सब के लिये एक है पर मैं वास्तव में संघ की आज्ञा का उलंघन नहीं कर रहा हूँ क्यों कि मैं तो ध्यानपूर्वक " प्राणायाम " का अभ्यास कर रहा हूँ अतएव अधिक विहार नहीं कर सकता । यदि पढ़नेवाले मुनि मेरे पास यहाँ आ जाय तो मैं उन्हें कुछ समय तक नित्य पढ़ा सकता हूँ। इतनेपर भी यदि संघ की आज्ञा हो तो मैं वहाँ पिना
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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