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________________ आचार्यश्री भद्रबाहु. (१२९) विलंब चलने को भी कटिबद्ध हूँ। मुनियोंने लौटकर पाटलीपुत्रमें श्रा कर सब वृतान्त कह सुनाया। ___पाटलीपुत्रसे स्थूलीभद्र आदि ५०० मुनि अध्ययन के निमित्त नैपाल की और जाने को तैयार हुए । मुनि नैपालमें यथा समय पहुँच कर शास्त्रों का अध्ययन करनेमें जुटे । स्थूलभद्रने दशपूर्व का सार्थ अध्ययन किया तथा दूसरे मुनियोंने भी थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त किया। . जब आचार्यश्रीने " प्राणयाम” का अभ्यास पूर्ण कर लिया तो मगधदेश की ओर विहार किया। उस समय मगधदेश का राजा मौर्य कुल मुकुटमणी प्रजापालक स्वनाम धन्य सम्राट चंद्रगुप्त था जो आचार्यश्री का परम भक्त तथा जैनधर्म का उपासक था । उसने जैनधर्म का प्रचार करने में पूर्ण प्रवृति रक्खी ! चन्द्रगुप्त नरेश का विस्तृत वृत्तान्त आगे नरेशों के प्रकरणमें बताया जायगा। प्राचार्य भद्रबाहुसूरी अन्तिम श्रुतकेवली और वडे ही धर्मप्रचारक थे जिन्हों का विस्तृत जीवन शाप के चारित्रसें देखना चाहियेआपने अपना अंतिम समय निकट जान अपने सुयोग्य मुनि स्थूलीभद्र को आचार्य पद अर्पित किया । पाप ४५ वर्षतक गृहवास, १७ वर्ष तक सामान्य मुनिपद एवं १४ वर्ष तक युगप्रधान (आचार्य) रह कर इस प्रकार ७६ वर्ष का आयु भोग कर वीरात् १७० सम्वत् स्वर्ग को सिधारे।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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