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________________ (१३.) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. [८] अष्टम पट्ट पर आचार्यश्री स्थूलीभद्रसूरी हुए। भापके पिता शकडाल जैन पाटलीपुत्र नृपति नंदनरेश के मंत्री थे। आपका सहोदर भाई श्रीयक कहजाता था । आप के सात बहिर्ने थी जिन का नाम सेणावेणारेणा आदि था। बाल्यावस्था बिंताते ही तरुणावस्थामें कामान्ध हो स्थूलीभद्र एक रुपवती कोशा नामक वेश्या के प्रेम फाँसमें जकड गया । उस वेश्याने इन को ऐसा उल्लू बनाया कि स्थूलीभद्रने ऐयाशीमें साढ़े बारह कोड़ स्वर्णमुद्राएँ व्यय कर डालीं। नंदराजा की सभामें एक वररुचि नाम का शीघ्र कवि या करता था जो दैनिक १०८ काव्य की रचना कर राजाको प्रसन्न कर प्रचुर द्रव्य प्राप्त करता था। राजा के मंत्री शकडोल को विदित हुआ कि वररुचि की कविताएँ मौलिक नहीं होती उनमें छायावाद और अनुवाद तथा अनुकरण की बू होती थी। यह कवि अपने आप को शीघ्र कवि प्रसिद्ध कर वास्तवमें राजा को धोखा देता है । शकड़ालने सोचा कि मुझे उचित है कि मैं जिस राजा का नमक खाता हूँ उसे असली भेद बता दूं। शकडालने वररुचि के आडम्बर का भेद राजा को बता दिया। राजाने मंत्री की बात पर विश्वास कर वररुचि को द्रव्य देना बंद कर दिया। इस कारण वररुचि मंत्रीसे पूर्ण द्वेष रखने लगा और ऐसे अवसर की ताकमें रहने लगा कि समय आनेपर मंत्री को भी कुछ हाथ दिखा दूँ। मंत्री शकडाल के पुत्र श्रीयक का थोडे दिनों बाद विवाह
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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