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________________ जैनाचार्य भद्रबाहु सूरि. . (१२७) ____एक वार इस भारतभूमि के उत्तर विभाग पर भयंकर अकाल पड़ा । जो निरन्तर १२ वर्ष पर्यन्त रहा । संसार भर में त्राहि त्राहि सुनाई दी जाने लगी । सहस्रों प्राणी अन्न के अभाव से मृत्यु के गाल में जा बसे । ऐसी दशा में मुनियों का निर्बाह होना भी कठिन हो गया । अतएव भद्रबाहु स्वामीने ५०० शिष्यों सहित नेपाल की ओर विहार किया। इतिहास से पता चलता है कि आपने इसी दुष्काल में एक बार दक्षिण की ओर भी विहार किया था। या तो आप दक्षिण की ओर विचरण कर पीछे लौट कर नेपाल पधारे हों या नेपाल मे लौट कर दक्षिण की यात्रा कर पुनः नेपाल पधारे हों ! पर यह निश्चय है कि आप को मगध प्रान्त अवश्य त्यागना पड़ा था । कई मनियोंने आसपास रह कर उसं विकट समय को किसी तरह बिताया । जब सुकाल हुआ तो उस प्रान्त के सब मुनियोंने पाटलीपुत्र नगर में एक मुनि सम्मेलन किया । मुनियों का लक्ष्य सब से प्रथम शास्त्रों की ओर पहुँचा । इस विपत्ती काल में सब के सब शास्त्र कंठस्थ रहना कठिन था अतएव शास्त्र याद नहीं रहे तथापि प्रात्मार्थी मुनिगण किसी न किसी अंशतक थोड़ा थोड़ा ज्ञान स्मृति में अवश्य रखते थे । उस विस्तृत समुदाय में सबने मिलकर ग्यारह अङ्ग की शृङ्खला तो ठीक कर ली पर बाहरवाँ दृष्टि वाद अंग सम्पूर्ण किसी को भी याद नहीं था अतएव चतुर्विध संघने मिलकर परामर्श कर निश्चय किया कि नेपाल से आचार्य भद्रबाहु स्वामी को बुलाना चाहिये जो द्वादशांगी के पूर्ण ज्ञाता थे । यदि भद्रबाहु स्वामी प
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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