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________________ ( ९०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. धर्मपर उनलोगों का विश्वास हो गया था तथापि उनकी श्रद्धा और भी मजबुत हो जा इत्यादि कारणों से मुझे मूलगे रूप वहाँ रहना पडा था ऐसे मधुर वचनों से कोरंट संघ को संतुष्ट कर फिर कहा कि आपने कनकप्रभसूरि कों आचार्य पद दिया यह भी ठीक ही किया है कारण प्रत्येक प्रान्त में एकेक योग्याचार्य होने की इस समय बहुत जरूरी है इतने मे कनकप्रभसूरिने अर्ज करी कि हे भगवन् । में तो इस कार्य में खुशी नहीं था पर यहां के संघमे अधैर्यता देख संघ बचन को अनेच्छा भी स्वीकार करना पडा है आप तो हमारे गुरु है यह आचार्यपद आपश्री के चरणकमलों मे मैं अर्पण करता हु इसपर आचार्य रत्नप्रभसूरिने संघ समक्ष कनकप्रभसूरि पर वासक्षेप डाल के आचार्य पद कि विशेषता कर दी इस एकदीली को देख संघमें बडा भारी आनंद मंगल छा गया बाद जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुइ तत्पश्चात् रत्नप्रभसूरि और कनकप्रभसूरिने अपने योग्य मुनिवरों से कहा कि मुनिवर्य भविष्यकाल महाभयंकर आवेगा जैनधर्म के कठिन नियम संसार लुब्ध जीवों को पालन करना मुश्किल होगा वास्ते पूज्य गुरुवर्य स्वयंप्रभसूरिने दीर्घोष्ट और दिव्य ज्ञानद्वारा महान् लाभ जान के " महाजन" संघ की स्थापना करी है उनकी खुब वृद्धि कर पवित्र जैनधर्मको एक विश्वव्यापिधर्म बना देना भविष्य में बहुत लाभकारी होगा इस लिये सब साधुओं को कम्मर कस के पैरोपर खडे हो जहां तहां भव्य जीवों को प्रति बोध दे दे कर इस महाजन संघ में वृद्धि करना बहुत जरूरी बात है इत्यादि वार्तालाप
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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