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________________ ( ५१ ) श्री जैन जाति महोदय प्र० चोथा. सुखपूर्वक निर्वाह हो जाए और सेवगोंने भी एसी प्रतिज्ञा ले रखी है कि हम सवालों के सिवाय दूसरी शातिसे याचना नहीं करेंगें । (२४) ओसवालोंकी सर्व जीवों प्रति मैत्रीकी भावना - पर्युषणादि पर्वदिनों में प्रोसवाल स्वयं पापक्रमको त्याग करते है और दूसरी ज्ञातियोंको उपदेशद्वारा व द्रव्यद्वारा उन्हका पापकार्य छोडाते है इतना नहीं पर इस विषयमें बडे बडे राजामहाराजा और बादशाहोंका चित्तको आकर्षित कर जीवदया व पर्वदिनोंमे ते पलाने के विषय में पढे परवाने सनंदे प्राप्त कर उनका भ्रमल दर अमल देश प्रदेशमें करवाके विचारे निरपराधी बोले जीवोंका श्राशीर्वाद प्राप्त किया है केवल पशुवों के लीये ही नहीं बल्के कई दुष्कालोंमे क्रोडो रूपैये खरचकर अपने देश भाइयोंके प्राण भी बचाये है यह श्रोसवालों की उदार भावनाका परिचय है । (२५) ओसवालोंके गोत्र व ज्ञातियां - इस विषय में वंसावलियों और पट्टावलियों का भिन्न भिन्न मत है कितनेक लिखते है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरिने उपलदेवराजादिको प्रतिबोध दीया था उस समय १८ गौत्र की स्थापना की । जब कितनेकों का मत है कि मंत्रीपुत्र कि खुशी में सूरिजीकी सेवामें १८ रत्नोंका थाल रखा था तदनुसार १८ गौत्र हुवे जब कितनेको का मत है कि देवीके मन्दिर पूजा करनेको गये हुवे श्राद्धवर्ग के १८ गोत्र स्थापन किये । कितनेकों का मत है कि अठारा कुलके राजपुतों कों प्रतिबोध दीये जिनके १८ गौत्र हुवे है इत्यादि समय के विषय भेद होनेपर भी शरूसे १८
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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