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________________ भगवान् महावीर. (५९) आश्चर्य इस बात का था कि साधारण आदमि को काटने से रक्त वहता है पर भगवान् को काटने से सर्प को पयपान मिला इस पर सर्प टीक टीकी लगा के प्रभो के सामने देखता है तो उन की मुखमुद्रा पर क्रोध की तनीक भी मलक न पाई उपसर्ग के पश्चात् भी शान्ति-क्षमा और दया की नदिये वह रही थी. शान्ति मुद्रा देखते ही सर्प तो मुग्ध बन गया कारण ऐसी मुद्रा पहले नहीं देखी थी फिर भी एकाग्र हो सर्प जैसे जैसे भगवान को देख रहा है वैसे वैसे भगवान् के परमाणवें सर्प का अन्तःकरण को साफ बना रहे थे जब सर्प की क्रोध आत्माने सुधारा की और पलटा खाया तब भगवान् बोले, रे चण्डकौशिक ! समझ ! समम !! क्रोध के वश अंधा क्यों हो रहा है ? अपने पूर्वभव को स्मरण कर और इस भव में करी हुई भूलों पर पश्चाताप कर इत्यादि भगवान् के शान्तिमय वाक्य श्रवण कर विचार करते को ' जाति स्मरण' ज्ञानोत्पन्न हो गया। सर्पने अपना पूर्व भव देखा कि मोक्ष साधना के लिये बना हुवा साधु, क्रोध के वशीभूत हो मैं चण्डकौशिक सर्प हुवा फिर भी इस बख्त महा क्रोध कर अनेक जीवों को तकलीफ दे रहा हूं इतना ही नहीं पर जगत्पूज्य करूणासागर भगवान् महावीर को भी मैंने काट खाया है न जाने मेरी क्या गति होगा? बस ! उस शक्ति को ही पलटानी थी. सर्प जैसे उत्कृष्ट क्रोधी था वह ही आज उत्कृष्ट शान्तिमय मूर्तिमान बन गया मानों एक मोक्षाभिलाषी महात्मा वैरागभावको धारण किया हो सर्पने अनसन कर आठवा स्वर्ग को प्राप्त किया. जिस सर्पने भगवान को अतिशय
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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