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________________ (६०) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. उपसर्ग दीया था बदला में भगवान् उस को आठवे स्वर्ग पहुंचा दिया यह ही तो प्रभु की प्रभुता है। (५) एक समय प्रभु विहार करते एक जंगल के अन्दर कायोत्सर्ग में स्थित थे वहां पर किसी गोपालने अपने बलदों को छोड कार्यवशात् स्थानान्तर गमन किया वह बैल चरते चरते दूर चले गये । गोवाल पीच्छा साया, प्रभु से पुच्छा कि मेरे बलद कहां है ? भगवान तो ध्यान में थे, उत्तर न मिलने पर गोवाल बलदों की शोध में गया. इधर बलद चर फिर के वापिस उसी स्थान पर आगये की जहां प्रभु ध्यान में थे. गोवाल . ढूंढ ढूंढ के बहुत हेरान अर्थात् दुःखी हो भगवान् के पास आया तो वहां बैल मोजुद था. बस गोवाल को विचार हुवा कि मैरे बैल ले जाने के लिये ही इसने यह षडयंत्र रचा है अगर एसा न होता तो यह जानता हुवा भी मुझे कष्ट न देता मारागुस्सा के भगवान् के कानों में खोली ठोक मारी वह दोनों कानों के भारपार निकल गई. उस समय प्रभु को अतूल वेदना हुई पर जो त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में शय्यापलक के कानों में सीसा डलवाया था वह ही त्रिपृष्ट आज प्रभु महावीर है और वह ही शय्यापलक आज गोवाल है। कमों का बदला अवश्य देना पडता है उस का यह एक उत्तम उदाहरण है उस महान् उपसर्ग से भगवान को वेदना अवश्य हुई पर अपने अमोघ धैर्य और प्रतिज्ञा से तनिक भी चलित न हुये इतना हि नहीं बल्कि अपने दुष्ट
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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