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________________ (२२) जन जाति महोदय. पुंडरिक गणधर तो पंचक्रोडी मुनियो के परिवारसे पवित्र तीर्थ शजय पर मोक्ष गये जिस शत्रुजय पर भगवान् ऋषभदेव ननाणु पूर्ववार समवसरे थे अन्तमे भगवान ! अष्टापद पर्वतपर दशहजार मुनियों के साथ माघ वदी १३ को निर्वाण पधार गये इस अवसर शेक युक्त इन्द्रोने भगवान्का निर्वाण कल्याणक किया भगवानको जहांपर अग्नि संस्कार किया था. वहांपर इन्द्रने एक रत्नो का विशाल स्तूप बनवा दीया और एकेक गणधर व मुनियोंके स्थान भी स्तूप बंधवाया था भगवान्के दाडों व अस्थि इन्द्र व देवता ले गये थे और उनका पूजन पक्षालन वन्दन भक्ति जिनप्रतिमा तूल्य किया करते है । ____ जैसे एक सर्पिणी कालमे २४ तीर्थंकर होनेका नियम है वैसे ही १२ चक्रवर्तिराजा होनेका भी नियम है। इस कालमें बारह चक्रवर्तिराजाओमें, यह भरत नामाचक्रवर्ति पहला राजा हुवा है इन कि ऋद्धि अपरम्पार है जैसे चौदह रत्न नौनिधाने पचवीस हजार देवता बतीसहजर मुगटबंधराजा सेवामें चौरासी हजार २ हस्ती रथ अश्व-छन्नूक्रोड पैदल और चौसठहजार अन्तरादि । छे खंड साधन करते हुवे को ६० हजार वर्ष लगा था ऋषभकूट पर्वतपर आप के दिग्विजय कि प्रशस्तिए भी अंकित की गइ थी उस समय के आर्य अनार्य सब हि देशोंके राजा आप की आज्ञासादर सिरोद्धार करते थे और आर्य-अनार्य राजाओंने अपनी १ नौनिधान नैसर्ग, पांडुक, पिंगल, सर्वरत्न, पद्म महापद्म, माणव, संक्ख ! काल २ चौदह रत्न-सैनापति, गाथापति, वडाइ, पुरोहित, स्त्रि, हस्ती, अश्व, चक्र, छत्र, चामर, मणि, कांगणि, अली, दंड रत्न ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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