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अन्तर आत्मा.
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पुत्रियोंका पाणिग्रहन भी भरत सम्राट् के साथ कीयाथा इत्यादि जो आज पर्यन्त इस आर्यव्रतका नाम भारतवर्ष है वह इसी भरत सम्राट कि स्मृति रूप है ।
भरत सम्राट् (चक्रवर्त्ति ) ने छे खंडमें एक छत्र न्याययुक्त राजकर दुनियाकी वडी भारी आबादी (उन्नति) करी आपने अपने जीवनमें धर्म्मकार्य भी बहुत सुन्दर कीया अष्टापद पर चौवीस तीर्थकरों के चौवीस मन्दिर और अपने ह८ भाइयोंका "सिंह - निषद्या" नामका प्रासाद, शत्रुंजय तीर्थंका संघ और भी अनेक सुकृत कार्य्यकर अन्तमें आरिसा भुवनमें आप विराजमान थे उस समय एक अंगुलीसे मुद्रिका गिरजानेसे दर्पण में अंगुली अनिष्ट दीखने लगी तब स्वयं दूसरे भूषण उतारते गये वैसे ही शरीरका स्वरूप भयंकार दीखाई देने लगा बस ! वहां ही अनित्य भावना और शुक्लध्यान क्षपकश्रेणि आरूढ हो कैवल्यज्ञान प्राप्ति कर लिया देवतोने मुनिवेष दे दीया दश हजार राजपुत्रोंकों दीक्षा दे. आपने केइ वर्षतक जनताका उद्धार कर आखिर मोक्षमे अक्षयखजा विराजे ।
भरतमहाराज, चक्रवर्ती राजा था इनोके बहुतसी ऋद्धिथी पर इनका अन्तरआत्मा सदैव पवित्र रहता था एक समय भरतने आदेश्वर भगवान् से पुच्छा कि है प्रभो ! मेरा भी कभी मोक्ष होगा ? भगवान् ने कहा कि भरत ! तुम इसी भवमे मोत जावोगें इतनामे कीसीने कहा की बाप तो मोक्ष देनेवाला और पुत्र मोक्ष जानेवाला जिस भरतके इतना वडा भारी आरंभ परिग्रह लग रहा है फीर भी