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________________ (१७२) जैन जाति महोदय प्रकरण कहा. __जब विशेष साधु समुदाय एसा है कि वह आज हमारे शास्त्र और भाचार्य प्रदर्शत पथसे कुच्छ पृथक ही जा रहा है; उन के विषय में जो कुछ लिखना है उस से अपने लेख के महत्व को झाला बनाना है, कारण वे पढकर के कह देंगे कि इस पुस्तक में न्या धरा है यह तो साधुओं की निन्दासे भरी पड़ी है, पढना तो क्यापर हाथ में लेने के काबिल भी नहीं है इत्यादि । तथापि सत्य लिखने में लेखनी रूक नहीं सक्ती है। वर्तमान हमारे गुरुदेवों का विहारक्षेत्र जिन पूर्व महर्षियोंने अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भारत के चारों और विहारकर जैन धर्म का प्रचार कर वार वार उपदेश द्वारा उन का रक्षण पोषण किया, उनके सेवा पूजा निमित्त सेंकडों मंदिरों की प्रतिष्ठा करवाई, आज हमारे विद्यापीठादि पंच प्रस्थान जगद्गुरु भट्टारक, शासनसम्राट् , सूरि चकचूडामणि, शासनोद्वारक, आगमोद्धारक, और व्याख्यान वाबसती मादि २ उपाधियों भूषित सूरिश्वरजीने अपना विहारक्षेत्र कितना संकुचित बना रक्खा है कि पाप श्रीमानों के चरण कमलोंसे एकाद प्रान्त के सिवाय भूमि पवित्र तक भी नहीं हुई है कि जहाँ माप के पूर्वजोंने हजारों लाखों जैन बनाए थे, वे भाज मुनिविहार और सदुपदेशक के अभाव धर्म से पतित होकर विधर्मी बन
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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