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जैनाचार्य और मुनिवर्ग. (१७१ ) तथापि शासनोन्नति रूप लक्ष बिन्दु सब का एक ही था। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से देश विदेशमें परिभ्रमण कर जैन धर्म की बहुत उन्नति की, अपने अमृतमय उपदेश द्वारा जैन जनता का रक्षण पोषण और वृद्धि की थी. जैन ग्रंथ और मन्दिरों का निर्माण करना तो उनके जीवन का खास ध्येय था, इसी से ही आज जैन ग्रंथ और जैन मंदिरों के शिलालेख विशेष उसी समय के मिलते हैं।
__ क्रमशः काल कि कुटिलता का प्रभावसें हमारे प्राचार्य और संघ में कुछ २ शिथलताने प्रवेश किया दृष्टिगोचर होता है, तब भी हम दावे के साथ कह सक्ते हैं कि भारत में तो क्या पर पृथ्वीपट्ट पर ऐसा भी कोई साधु समाज न होगा कि हमारे जैन साधुओं की बराबरी में सामना कर सके, कारण आज हमारे जैन मुनिरान हजारों कोस पैदल घूमते हैं, शिर के वाल हाथों से उखेडते हैं, अपने पास किंचित भी द्रव्य नहीं रखते हैं, क्रय विक्रय नहीं करते हैं क्षुधा वस मर जाते हैं, पर हाथ से रोटी नहीं बनाते हैं इतना ही नहीं पर विना जल प्राण चले जाते हो, पर वे कूए तलाव
आदि का कच्चा पानी नहीं पीते हैं ब्रह्मचर्यव्रत तो इतना दृढ रखते हैं कि वे छमास की बाला को भी नहीं छूते है। किसी मात्मा को तकलीफ पहुंचाना, असत्य बोलना और तृण मात्र भी अदत्त लेना तो वे महापाप समझते हैं संसार के रगड़े झगड़ों से तो वे हजार कोस दूर रहना अपना कर्तव्य समझते हैं। ऐसे पवित्र मुनियों का आज जैन संसारमें प्रभाव नहीं है तथापि वे अल्प संख्या में ही नजर आते हैं।