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________________ ( २३. ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. ग्रन्याद्वारा आधुनिक इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं। इस से तो सिद्ध होता है कि महाराष्ट्र प्रान्त में भद्रबाहु स्वामी के प्रथम से ही जैनधर्म प्रचलित था। यह जैनियों का बड़ा क्षेत्र था इसी लिये उस विकटावस्था में सहसा सहस्रों मुनियों के साथ आपने विहार किया था। भद्रबाहु स्वामी से प्रथम कितने ही समय से वहाँ जैन. धर्म प्रचलित था इस का एक स्थान पर प्रमाण भी मिलता है वह यह है कि पार्श्वनाथ पट्टावली में ऐसा उल्लेख हुआ है कि केशी श्रमणाचार्य ( महावीरस्वामी से पूर्व) के आज्ञावर्ती लौहित्याचार्यने महा. . राष्ट्र की ओर विहार किया था तथा उन के शिष्य प्रशिष्य भी . चिरकाल तक उसी प्रान्त में विचरण करते थे। उपर्युक्त वृतान्त से विदित होता है कि भद्रबाहु स्वामीने इस क्षेत्र को उपयुक्त समझ कर ही इस ओर यकायक पदार्पण किया होगा । आपने दक्षिण की यात्रा के पश्चात् ही नेपाल की ओर बिहार किया होगा। महाराजा अमोघवर्ष के गज्य काल तक तो इस प्रान्त में जैन धर्म खूब जाहोजलाली में था । इस के पश्चात् वीजलदेव के शासन पर्यन्त तो जैन धर्म इस प्रान्त में गष्टधर्म के रूप में रहा । क्योंकि गष्ट्रकूटवंश, पाण्ड्य वंश, चोल वंश, कलचूरी वंश तथा कलब वंश इत्यादि के सब राजा केवल जैन धर्मोपासक ही नहीं वरन् बड़े भारी प्रचारक थे । ये बातें शिलालेखों से प्रकट हुई हैं । किन्तु अाज पर्यन्त वह दशा नहीं रहीं अब से बहुत पहले लगभग विक्रम की बारहवीं शताब्दी में वासवादत्त ने इस प्रान्त में लिलायत मत की नींव डाली; उस दिन से जैनियों की संख्या निर.
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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