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________________ ( १० ) जैन जाति महोदय. . पाणी वापरता नथी. सर्व दुष्ट कर्म करता नथी. श्रने सघला दुष्कना विरमन वडे ते सर्व पापोथी मुक्त छे, श्रने सर्व प्रकारना दुष्कर्मोथी सघलां पापकर्मोथी निवृत्ति अनुभवे छे. आ प्रमाणे हे महाराज ! निगंठ चार दिशाना संवग्धी संवृत छे, ने महाराज ! श्राप्रमाणे संवृत होवाथी ते निगठनातंपुत्तनो आत्मा मोटी योग्यतावालो छे. संयत ने सुस्थित छे. सुत्तकी सुमंगलविलासीनी टीकाका जैनसूत्रों की प्रस्तावना ). ( दीर्घनिकाय - सामफलअनुवाद, हग्मन जेकोबीकी ८५ (१०) * पार्श्वनाथजी जैनधर्मके आदि प्रचारक नहीं थे. परंतु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवजीने किया था, इसकी पुष्टिके प्रमाणों का प्रभाव नहीं है । बौद्धलोग महावीरजीको निग्रन्थोंका ( जैनियोंका ) 1 नायक मात्र कहते है स्थापक नहीं कहते हैं. " ( श्री राकांत मुखोपाध्याय एम. ए. के बंगला लेखका अनुवादित अंश. ) (११) भारतेंदु हरिश्चंद्रने इतिहाससमुच्चयांतर्गत काश्मीरकी राजवंशावली में लिखा है कि " काश्मीरकं गजवंशमें ४७ वां अशोक राजा हुआ, इसने ६२ वर्ष तक राज्य किया, श्रीनगर इसीने वसाया और जैनमतका प्रचार किया, यह गजा शचीनरका भतीजा था मुसलमानोंने इसको शुकराज वा शकुनिका बेटा लिखा है, इनके वक्तमें श्रीनगर में छ लाख मनुष्य थे इसका सत्तासमय १३९४ ईसवी सन पूर्वका हैं " ( देखो इतिहाससमुच्चय पृ. १८ ) ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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