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हमारे गुरुदेवों की व्याख्यान प्रथाली. (१७२) धर्मोन्नति किया करते थे, पर आज तो वायुमण्डल बिल्कुल बदल गया है एक ही गच्छ, एक ही क्रिया, एक ही श्रद्धा, एक ही वेश होनेपर भी आपस में न भोजन व्यवहार, न वन्दना व्यवहार, न एक स्थान में उतरने का व्यवहार, विचारे गृहस्थ तो चौरासी न्याति के लोग भी एक स्थान ठहर कर के आपस में भोजन कर लेते हैं, तब हमारे निराभिमानी त्यागी महापुरुषों में इतना ही व्यवहार नहीं है बल्कि एक दूसरे का पैर उखेड़ने में ही अपना महत्व समझ रक्खा है । जिन के आपस के लेख और चर्चा की पुस्तकें देखी जाय तो अन्य लोगों की तो क्यापर जैनों की भी श्रद्धा उठ जाती है कि वे लोग आपस में इतना द्वेष रखते है तो हमारा क्या कल्याण कर सकेंगे।
हमारे गुरुदेवों की व्याख्यान प्रणाली
जमाना बदल गया जनता बदल गई पर हमारे भाचार्यों की व्याख्यान शैली अभी तक वह की वह ही बनी है जो कि किसी जमाने में भद्रिक जनता को सुनाई जाती थी और वह जी महाराज ! कह कर स्वर में स्वर मिलाया करती थी, पर भाज तो दुनिया का रंग बदल गया है वह तत्वज्ञान का फिराक में फिर रही है भगवान महावीर के सिद्धान्त में अत्यन्त उच्च कोटी का तत्वज्ञान भरा पड़ा है इतना ही नहीं पर उन सर्वज्ञ परमात्माने