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(१७४) जैन जाति महोदय प्रकरण छटा. उन त्यागी पुरुषों को गुर्जर प्रान्त से इतना क्यों प्रतिबंध है कि अनेकवार अपमान होता है फिर भी वहां जाकर के घुसते हैं। मगर खानपान पौगलिक सुखों की ही भावना हो तो इस समय लोग दिशावरी होनेसे बहुत कुछ सुधारा हो गया इतनेपर थोड़ा बहुत कष्ट भी पड़ जाय तो उसको सहन करना चाहिए नहीं तो फिर साधु ही किस बात के।
जिन साधुओं की पढाई के लिए समाजने लाखों रूपयै खर्च किए, उसका फल क्या हुआ भतःएव आचार्य महाराज
और विद्वान मुनि महाराजों को हमारी नम्र विनात है कि आप एक प्रान्त का मोह छोड़ देशोदेश में उप विहार करे परन्तु ऐसे न हो कि आप की आधी व्याधि उपाधि और नौकर चाकरों के खर्चे से लोग अधर्म को प्राप्त हो जाय, इस लिए पाप को समयज्ञ होने की भी बहुत जरूरत है श्राप के आडम्बर की निष्वत् आज ज्ञान वैराग्य सदाचार और क्रियाकांड की रूचीवाले लोग
हमारे गुरूदेवों के आपस का धर्मस्नेह
पूर्व जमाने में हमारे चौरासी और इन से भी अधिक गच्छों के प्राचार्य और मुनिवर्ग भूमण्डन्न पर विहार करते थे, उनके क्रियाभेद होते हुए भी आपस में धर्मस्नेह रखते थे एक दूसरे के गुणों की अनुमोदना करते हुए आपस में सहायता कर