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(५४) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. करने में भाग्यशाली बनें"। इस प्रेरणा को लेकर आचार्यश्रीने प्रातःकाल होते ही मुनिगण को आज्ञा फरमा दी कि हमने कच्छ देश की और विहार करने का निश्चय किया है वास्ते कठिन से कठ्ठिन तपश्चर्या करनेवाले और अनेक संकटों का सामना करने में समर्थ हो वह मुनि कम्मर कस तैयार हो जावें यह हुक्म मिलते ही अनेक मुनि बड़े उत्साह और वीरता से तैयार हो गए। क्यों न हो वीरों की सन्तान भी वीर ही हुआ करती हैं। .
सिन्ध प्रान्त में रहकर विहार करनेवाले मुनियों के लिए आचार्यश्रीने सुन्दर व्यवस्था कर दी और आपने ढाईसो मुनि . पुङ्गवों के साथ कच्छ भूमि की तरफ विहार कर दिया । जैन धर्म के प्रचारार्थ भ्रमण करते हुए महात्माओं को अनेक प्रकार के संकट परिसह हो रहे थे। भूख प्यास की तो वे लोग पर्वाह भी नहीं करते थे गिरी गुफा और जङ्गलों में रहना तो वे अपना
आत्मीय गौरव समझते थे । चिन्ता फिक्र ग्लानि तो उनसे हजार कोस दूर रहा करती थी दूसरों की सहायता की अपेक्षा रखना वे अपना पतन ही समझते थे। स्वोत्साह और पुरुषार्थ को अपने मददगार बना रखे थे । घोर तपश्चर्या होनेपर भी उनके चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था इस अवस्था में हमारे युथपति प्राचार्यदेव अपने शिष्य समुदाय के साथ कच्छ प्रदेश की ओर बिहार करते हुए क्रमशः कच्छ भूमिमें आपश्रीने पदार्पण किया।
एक समय का जिक्र है कि जङ्गल के अंदर विहार करते हुए मुनिवर्ग इधर उधर रास्ता भूल गए और आचार्यश्री केवल