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________________ आचार्यश्री कक्कसूरि. (५३) रने में आप वादी चक्रवर्त्ति की पद्वीसे विभूषित थे जैन धर्मका झण्डा फरकाने में आप अद्वितीय वीर थे शासन रथको चलानेमें मारवाड़ के वृषभ कहलाए जाते थे, आप के पुरुषार्थ और प्रयत्न से जैसे जैन जनता में वृद्धि हो रही थी वैसे ही साधु साध्वियों की संख्या भी बढ रही थी जो सिन्ध प्रान्त में बहुत वर्षों तक जैन धर्मकी प्राबल्यता रही वह आप के परिश्रमका ही फल है । एक समय का जिक्र है कि आचार्य श्री कक्कसूरिजी रात्री में यह विचार कर रहे थे कि हमारे पूर्वजोंने नए २ प्रान्तों में जैन धर्म प्रचलित किया जैसे आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरिने श्रीमाल पद्मावती नगरी में महाजन संघ की स्थापना की आचार्य श्रा रत्नप्रभसूरिने उपकेश पट्टन में महाजन संघ में वृद्धि की और हमारे गुरुवर्य आचार्यश्री यत्तदेवसूरिजीने सिन्ध प्रान्त में जैन धर्म प्रचलित किया तो क्या मैं केवल पूर्वजों के बनाए हुए जैनों की रोटियों खा कर मेरा जीवन समाप्त कर दूंगा ? क्या इसमें ही मेरे जीवन की सफलता होगी ? इत्यादि विचारकर रहे थे इतने में एक आवाज हुई कि भो आचार्य ! " आप कच्छ देश में विहार करो आप को बड़ा भारी लाभ होगा" इन वचनों को श्रवण कर आचार्यश्री एकदम चमक उठे इधर उधर देखा किसी को नहीं पाया । फिर सूरिजीने सोचा कि यह आदर्श प्रेरणा करनेवाला कोई न कोई हमारा सहायक ही है इतने में तो मातूला देवीने आकर अर्ज करी " प्रभो ! आप कच्छ प्रान्त में विहार करें ताकि अपने पूर्वजों कि माफिक आप भी जैन धर्म का प्रचार
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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