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आचार्यश्री कक्कसूरि.
(९५) इका देवीने इस का निर्माण किया है तथा आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने इस मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई है । यदि यह गाँठे अशुभ होती तो वे उस समय इसका निराकरण करने में स्वतंत्र थे किन्तु उन्होंने सोच समझ कर इन गाँठी को रहने दिया था । तुम कहीं आवेश में आ कर कुछ अनर्थ न कर डालना । एक वार तो युवकों ने वृद्धों की बात मान ली पर अन्त में धैर्य टूट ही गया । वे अपने श्रावेश को रोक न सके । जब व पूजा करने आते थे तो उन्हें गाँठे खूब खटकने लगीं । संयोग से एक दिन सब वृद्ध लोग सामाजिक कार्य हित एकत्रित हो कर दूसरे स्थान को गये थे । नवयुवकों ने अपनी मन चाही करने का अ पर वही ठीक सममा । प्रचुर द्रव्य व्यय कर के एक सूत्रधार को उस कार्य के लिये बुलाया । उस लोभीने आकर मूर्ती के वक्षःस्थल पर टॅकी लगाई । टॅकी के लगते ही मूर्ती में से रक्तधारा प्रवाहित हुई । सूत्रधार भी बेहोश हो गिर पड़ा और गिरते हुए शोणित में लथपथ हो गया । रक्त गंभारा से परिप्लावित हो कर आगे वहने लगा । मूर्ती में से अविरल रक्त के फँवारे छूटने लगे। नवयुवकों की मंडली भयान्वित हो कर भाग गई। नगर भर में हाहाकार का कुहराम मच गया । वह दिन तो साक्षात् रुद्र रूप प्रकट करने लगा । दिशाश्नों भी डरावनी प्रतीत होने लगी। देवी के कोप से देश में खलभली मच गई । यह समाचार, जो पूरा रोमाञ्चकारी था, वृद्धजनों तक बात की बात में पहुंच गया। उन्होंने आ कर नवयुवकों को खूब उपालम्भ दिया । आशातना