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________________ आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि. (८१) . (११) ग्यारवें पट्ट पर प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज महान तपस्वी और बड़े भारी धर्म प्रचारक हुए । आप श्रीमान उपकेशपुर के राजा उपलदेव के वंश में एक बड़े भारी क्षत्रिय थे । किन्तु तारूण्य अवस्था में राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर मापने सिद्धसूरीश्वरजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा लेने के पश्चात् भाप आचार्य महाराज के साथ ही रहे । उन की विनयपूर्वक सेवा करते हुए आपने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया । श्राप स्व-परमत के विविध शास्त्रों के विषय में विशेषज्ञ थे। अध्ययन के साथ साथ आप तपस्या भी खूब करते थे । इस कारण कई राजा, महाराजा, देवी, देवता आदि सदैव आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे। आकाश गमन आदि लीब्धयों तथा चमत्कार प्रदर्शन में भी आप सिद्धहस्त थे । आचार्य सिद्धसूरीजी महाराज आपपर परम प्रसन्न रहते थे । ऐसे सुयोग्य को उत्तरदायत्व पूर्ण अधिकार देने की इच्छा आचार्य महाराज की हुई । फिर किस बात की देरी थी । आचार्य सिद्धसूरी महाराजने आपश्रीको वही पद दिया जो कि देना चाहिये था। उन्होंने अपने समक्ष आप को प्राचार्य पद पर विभूषित किया। उस समय भाप का नाम रत्नप्रभसूरी रक्खा गया और विधि विधानपूर्वक वासक्षेप डाला गया। प्राचार्य रत्नप्रभसूरी बड़े तपस्वी थे। आपने तपस्या का तांता लगा दिया। एक दो नहीं पूरे बारह वर्ष पर्यन्त तो आपने मास
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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