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" गुर्वष्टकम् "
___-* *भक्तायाभीष्टवस्तु प्रथितसुमहिमा कल्पशाखीव नित्यं दत्ते यो दिव्य देहः सपदि हुत भुजो रक्षितो येन चाहिः । मंसाराम्मों निधौ नौ निखिल भयहरं कीर्तनं यस्य रम्यं देवं मे हत्सरोजे नमचिरतमहं पार्श्वनाथं स्मरामि ॥ १॥
जिस की महिमा विश्वविख्यात है, जो अपने भक्त को कल्पतरु के सदृश इष्ट वस्तु को देता है, जिसने सर्प को अग्नि से बचाया था, जो दिव्य और अलौकिक देहधारी था, जिसका नामस्मरण सर्व भयों को मिटानेवाला है और कर्णप्रिय है, जिस का नाम संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए नौका रूप है उस पार्श्वदेव का मैं निशि दिन हृदय कमल में स्मरण करता हुँ ।।
जैनश्रेयस्करः श्रीगणधरशुभदत्तः प्रसिद्धो बभूव लोहित्याहं मुनिं चाकुरुतनुहरिदत्तः स्वबोधेन जैनम् । आचार्यः लाध्यकीर्तिस्तदनुगुणगणोऽभूत्समुद्राख्यमूरिः सर्वेऽमीभानुवन्नास्तिमिर पट मपा कुर्वतां मानसानाम् । २ ।
जिन शासन के प्रचार में जी जान से प्रयत्न करनेवाले प्रातःस्मरणीय गणधर शुभदत्ताचार्य, स्वस्ति नानी नगरी में पधार कर लाहित्य को भरी राज सभा में प्रबोध देकर जैन मुनि बनाने वाले स्वनामधन्य गुरु हरिदत्ताचार्य और अपने अनवरत उद्योग द्वारा जैनधर्म का प्रचार करनेवाले यशस्वी जो आचार्य आर्य