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________________ ( १९.) जैन जाति महोदय प्रकरग छछा. कारण सुख दुःख शोक संताप हर्ष उत्साहा आदि जैसेवाते गर्भवन्तीके सामने कि जाती है वैसा ही गर्भ के जीवपर प्रसार हो जाता है अर्थात् गर्भ के जीवन उसी समयसे निर्माण हुआ करता है। वास्ते गर्भवंती और उन के सहचार्यों को चाहिये कि गर्भ का भलीभांति पालन कर अपनी संतान की नीव को सुदृढ बनावे। हमारे धनाढ्य लोग गर्भ के रहते ही मंगलोत्सव हर्ष वधाइये और धैवर वगैरह में सेंकडो हजारो रुपैये व्यय कर देते है पर उन के घरोंमे गर्भवंती के दयाजनक हाल देखा जाये तो हृदय फट जाता है और इसी कारण से प्रायः धनाढ्यो के एक दो तीन पीढी मे गोदपुत्र की खोज करनी पडती है । अब हम प्रसूत समय कि तरफ दृष्टिपात करते हैं तो वह समय गर्भ और गर्भवती कि मृत्यु की कसोटी का है इसपर भी अपठित दाइयों उन के जीवन को इस कदर नष्ट कर देती है कि दीर्घायुः हो तोही वह गर्भ जीवित रह सके साथमें गर्भवंति के लिये मकान तो मानो एक कारागृह ही है कि जहाँ हवा का प्रवेश तक नहीं उसमें ही वस्त्र देखा जाये तो दुर्गन्धी से भभक उठे है प्रसूत समय जो फाटे हुए वस काममे लिये जाते है वह न जाने कितने अरसे के होते है कि मैल और दुर्गन्ध शरीर के लगते ही रोग पैदा हो जाते है इसी अत्याचार के कारण हमारी समाज में सेंकडे वीस ओरते सुवारोगसे खत्म हो जाति है तब सेकडे पैसि बचे नौमास नरकमे रह कर स्वर्गमें चले जाते है यह कैसा भिषण हत्याकण्ड
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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