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शास्त्रार्थ में जैनधर्म का विजय. . (७५) दुर्भाव होता है वैसे उन पाखंडियों पर राजा और प्रजा का दुर्भाव हो गया था. राजाने न तो उनको आदरसत्कार दया, न उनको बोलाया, इसपर वह लोग कहने लगे कि हे राजन् ! हम जानते है कि आप अपने पूर्वजों से चला आया पवित्र धर्म को छोड अर्थात् पूर्वजो की परम्परा पर लकीर फेर जैन धर्म को स्वीकार किया है आपने ही नहीं पर श्राप के दादाजी ( जयसेन राजा ) भी परम्परा धर्म छोड के जैनी बन गये थे पर आपके पिताजीने सत्य धर्म की शोध कर पुनः शैवधर्म के अन्दर स्थिर हो उसका ही प्रचार किया है । भला आप को ऐसा ही करना था तो हम को वहां बुला के शास्त्रार्थ तो करावाना था, कि जिससे आप को ज्ञात हो जाता कि कौनसा धर्म सत्य सदाचारी
और प्राचीन है इत्यादि । इसपर राजाने कहा कि मेरे दादाजीने और मैंने जो किया वह ठीक सोच समझ के ही कोया है आपके धर्म की सत्यता और सदाचार मैं अच्छी तरहसे जानता हूं कि जहां बेहन बेटीयां के साथ व्यभिचार करने में भी धर्म समजा गया है ओर रूतुवंती से भोग करना तो तीर्थयात्रा जीतना पुन्य माना गया है। धीक्कार है। एसे धर्म और एसे दुराचारके चलाने वालों को कि जिन्होने बिचारे भद्रिक जीवों को अधोगति के पात्र बना दीये है । कल्यान हो महात्मा रत्नप्रभसूरिजीका कि जिन्ह के जरिये हम लोगों को पवित्र धर्म की प्राप्ति हुई है अब हम लोग 'आपके मिथ्या धर्म को कानोंद्वारा सुनने में भी महान् पाप सममते है, शरम है कि ऐसे अधर्म को धर्म मानकर भी शास्त्रार्थ