SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री रत्नप्रभाकर शान पुष्पमाला पुष्प नं. १०४. श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः अथ श्री . जैन जाति महोदय. -*00000* प्रकरण दूसरा. - (चौवीस तीर्थकरोंका संक्षिप्त वर्णन ) • जैसे कालका आदि अन्त नहीं है वैसे सृष्टिका भी आदि अन्त नहीं है अर्थात् सृष्टिका कर्ता-हर्ता कोइ नहीं है। अनादिकालसे प्रवाहरूप चली आती है और भविष्यमें अनन्तकाल तक ऐसे ही संसार चलता रहेगा। इसका अन्त न तो कभी हुवा और न कभी होगा. - सृष्टिमें चैतन्य और जड़ एवं मुख्य दो पदार्थ है आज जो घराचर संसार दीखाइ देता है वह सब चैतन्य और जड़ वस्तुका पर्यायरूप है । कालका परिवर्तनसे कभी उन्नति कभी अवनति हुवा करती है उस कालका मुख्य दो भेद है (१) उत्सर्पिणी (२) अवसर्पिणी । इन दोनोंकों मीलानेसें कालचक्र होता है एसा अनन्त्र कालचक्र भूतकालमें हो गये और अनंते ही भविष्यकालमें होगा नास्ते कालका आदि अन्त नहीं है । जब कालका आदि अन्त
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy