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(२)
जैन जाति महोदय. नहीं है तब कालकी गीणना करनेवाला संसार ( सृष्टि ) का भी . आदि अन्त नहीं होना स्वयंसिद्ध है ।
(१) उत्सर्पिणी कालके अन्दर वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान जीवोंका आयुष्य और शरीर (देहमान ) आदि सब पदाथोंकी क्रमशः उन्नति होती है।
(२) अवसर्पिणी कालमें पूर्वोक्त सब बातोंकी क्रमशः अवनति होती है पर उन्नति और अवनति है वह समूहापेक्षा है न कि व्यक्ति अपेक्षा । उत्सर्पिणी काल अपनी चरमसीमातक पहुँच जाता है तब अवसर्पिणी कालका प्रारंभ होता है और अवसर्पिणी काल अपनी आखिर हदपर चला जाता है तब फीर उत्सर्पिणी कालकी शरुआत होती है क्रमशः इसी कालचक्रसें सृष्टिकी उन्नति और अवनति हुवा करती है।
जब समयकी अपेक्षा काल अनंता हो चुका है तब इतिहास भी इतना ही कालको होना एक स्वभावी वात है परंतु वह केवली गम्य है न कि एक साधारण मनुष्य उसे कह सके व लिख सके ।
जैसे हिन्दूधर्ममें कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुगसे कालका परिवर्तन माना है, वैसे ही जैनधर्ममें प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीके छे छे हिस्से (आरा) द्वारा कालका परिवर्तन माना गया है।
(१) उत्सर्पिणीके छे हिस्से ( १ ) दुःषमादुःषम (२) दुःषम ( ३ ) दुःषमासुषम (४) सुषमादुःषम (५) सुषम (६) सुषमासुषम. इस कालका स्वभाव है कि वह दुःखकी चरम