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________________ काल विभाग. (३) मीमासें प्रवेश हो क्रमशः उन्नति करता हुवा सुखकी चरमसीमा तक पहुँचके खतम होजाता है बाद अवसर्पिणीका प्रारंभ होता है। (२) अवसर्पिर्णाके के हिस्से ( १) सुखमासुखम (२) सुषम ( ३ ) सुषमादुःखम (४) दुःषमासुषम (५) दुःषम (६) दुःपमादुःपम. इस कालका स्वभाव है कि वह सुखकी चरमसीमासे प्रवेश हो क्रमशः अवनति करता हुवा दुःखकी चरमसीमा तक पहुँचके खतम होजाता है । बाद फिर उत्सर्पिणी कालका प्रारंभ होता है। एवं एकके अन्तमे दूसरी घटमालकी माफीक काल घूमता रहता है। वर्तमान समय जो वरत रहा है वह अवसर्पिणी काल है। आज मैं जो कुच्छ लिख रहा हूं वह इसी अवसर्पिणी कालके छे हिस्सोंके लिये है । ___ अवसर्पिणी कालके के हिस्सोमें पहला हिस्साका नाम सुपमासुपमारा है. वह च्यार कोडाकोड सागरोपमका है उस समय भूमिकी सुन्दरता सरसाइ व कल्पवृक्ष बडे ही मनोहर-अलौकिक थे उस समयके मनुष्य अच्छे रूपवान, विनयवान् , सरलस्वभावी, भद्रिक परिणामी, शान्तचित्त, कपायरहित, ममत्वरहित, पदचारी, तीन गाउका शरीर, तीन पल्योपमका आयुष्य, दोसो छपन्न पास अस्थि, असी मसी कसी, कर्मरहित दश प्रकारके कल्पवृक्ष मनइच्छित भोगोपभोग पदार्थसे जिनको संतुष्ट करते थे उन युगलमनुष्यों (दम्पति) से एक युगल पैदा होता था । वह ४६ दिन उसका प्रतिपालन कर एककों छींक दूसरेको उबासी आते ही स्वर्ग पहुँच जाते थे पीछे रहा हुवा युगल युवक होनेपर दम्पति सा वरताव स्वयं ही करलेते थे कारण कि उस जमानेमें बहनभाइकी संज्ञा न होनेसे कह दोषित
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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