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________________ ऐतिहासिक प्रमाण. (३) जैसे उन्हे आदिकालमें खाने, पीने, न्याय, नीति और कानूनका ज्ञान मिला, वैसे ही अध्यात्मशास्त्रका ज्ञान भी जीवोंने पाया । और वे अध्यात्मशास्त्रमें सब है. जैसे सांख्य योगादि दर्शन और जैनादिदर्शन । तब तो सज्जनो ! आप अवश्य जान गये होंगे कि-जैनमत तबसे प्रचलित हुआ है जबसे संसारमें सृष्ठिका आरम्भ हुअा।” (सर्वतन्त्रस्वतन्त्र सत्संप्रदायाचार्य स्वामि राममिश्र शास्त्री). (४) वेदोंमें संन्यास धर्मका नाम-निशान भी नहीं है. उस वक्तमें संमार छोड कर वन जा कर तपस्या करनेकी रीति वैदिक ऋषि नहीं जानते थे. वैदिक धर्ममें संन्याम आश्रमकी प्रवृत्ति ब्राह्मणकालमें हुइ है कि जो समय करीव ३००० तीन हजार वर्ष जितना पुराणा है, यही गय श्रीयुत रमेशचन्द्रदत्त अपने · भाग्नवर्षकी प्राचीन सभ्यताके इतिहास' में लिखते हैं जो नीचे मुजब है-" तब तक दूसरे प्रकाग्के ग्रंथोंकी ग्चना हुई जो ' ब्राह्मण' नामसे पुकार जाते है । इन ग्रंथोमें यज्ञोंकी विधि लिखी है । यह निस्सार और विस्तीर्ण रचना सर्वसाधारणके क्षीणशक्ति होने और ब्राह्मणोंके स्वमताभिमानका परिचय देती है । संसार छोड कर बनोंमें जानेकी प्रथा जो पहिले नामको भी नहीं थी, चल पडी, और ब्राह्मणोंके अंतिम भाग अर्थात् आरण्यकमें बनकी विधिक्रियाओंका ही वर्णन है।" (भा० व० प्रा० स० इ. भूमिका ). ( तात्पर्य यह कि यह शिक्षा जैनोंसे ही पाई थीं) ... (५) " यज्ञ यागादिकोंमें पशुओंका वध हो कर — यज्ञार्थ पशुहिंसा' आजकल नहीं होती है जैनधर्मने यही एक बडी भारी छाप
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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