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आचार्यश्री सिद्धसूरि.
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थे वैसे ही उनके श्राज्ञावृति चतुर्विध श्रीसंघ उनकी प्राज्ञा को सिरोद्धार करने को तय्यार रहते थे इसी एक दिलीसे वे मनोच्छित कार्य कर सकते थे ।
आचार्य श्री सिद्धरि मरुभूमिमें विहार करनेवाले मुनियों का उत्साह बढाते हुए योग्य विद्वान मुनियों को पद्विसे विभूषित बना उनकी सुन्दर व्यवस्था करी और उन को अन्य प्रान्तों में विहार करने की आज्ञा दी बाद आप श्रीमानने पूर्वाचार्यों की स्मृति रूप कई स्थानों की यात्रा करते हुए अनेक साधु साध्वीयों और श्राद्ध वर्ग के साथ श्री सिद्धगिरि की यात्रा की सौराष्ट्र में परिभ्रमण कर कच्छ की प्रोर पधारे वहां के विहार करनेवाले मुनिगण की सार संभार और सुन्दर व्यवस्था कर कुछ समय तक कच्छ में विहार किया पश्चात् श्रापने सिंध प्रान्तमें पदार्पण किया अर्थात् श्रापश्री बड़े ही दूरदर्शी थे जैसे आप नए जैन बनाने का प्रयत्न करते थे वैसे ही पहिले बनाए हुए जैन और साधु साध्वियों की सारसंभार करना भी आप एक परमावश्यक कार्य समझते थे । इस लिए आपश्रीने कई प्रसति सिन्धप्रान्त में विहार कर अपने श्रमण संघ के किए हुए कार्य पर प्रसन्न चित्त से धन्यवाद दिया और पारितोषिकरूपमें कई योग्य मुनिवरों को पद्वियों प्रदान की वहां का अच्छा इंतजाम कर आप विहार कर पंजाब देशमें पधार गए इस परिभ्रमण के दरम्यान श्रापने जैनशासन की प्रत्युत्तम सेवा की, यों तो आपने अपना जीवन ही धर्म .: प्रचार में व्यतित कर दिया था । अन्तर्मे श्राप मुनिरत्न को अपने पद पर निर्युक्त कर लोहापुर नगरमे १५ दिन का अनसन कर समाधिपूर्वक