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राजसभा में शास्त्रार्थ. . (२५) वैरिणोऽपि विमुच्यन्ते । प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ॥१॥
प्राणान्त मुहमे तृण लेने से महान वैरि भी अवध होता है तो सदैव तृण भक्षण करनेवाले पशुवों को मारना कितना अन्याय है।
ये, चक्रुः क्रूर कर्माणः शास्त्रं हिंसोपदेशकम् ।। क ते यास्यन्ति नरके नास्तिके भ्योऽपि नास्तिकाः ।।
अर्थात् जिन क्रूर कम्मियोंने हिंसोपदेश शास्त्रों को रचा है वह नास्तिको से भी नास्तिक होने से नरक के भागी होगे। इतनाही नहीं पर एसे शास्त्रों पर विश्वास और श्रद्धा रखनेवालो को भी वह नरफमे साथ ले जायगा । जैसे
विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः पात्यते नरकावनौ । अहो नृशंसर्लोभान्य हिंसा शास्त्रोपदेश कैः ॥१॥
भावार्थ-विचारे विश्वासु भद्रिक लोग भी निर्दय लोभान्ध और हिंसा शास्त्र के उपदेश को से वञ्चित हो कर नरक भूमि मे जाते है अर्थात् वह निर्दय अपने भक्तो को भी नरक में साथ ले जाते है इत्यादि धर्मोपदेश देने पर राजा और गन सभा वडे ही हर्ष चित्त से बोले की भगवान् हमने तो ऐसे उत्तम शब्द कानों में आज ही सुना है
और आपश्री का फरमाना भी सत्य है प्राणियों की हिंसा करना तो घौर नरक का ही कारण है और यह सर्वता त्यज्य है मैं आपके सामने प्रतिज्ञा करता हुं की मैरे नगर में तो क्या पर मेरे राज में किसी निरापराधि जीवों को मारना तो दूर रहा पर तकलिफ भी नहीं दी