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________________ (२४) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. यदि ग्रावातोये तरति तरणियद्युदयते। . . प्रतीच्यांसप्तार्चिर्यदि भजति शैल्यं कथमपि ॥ यदिदमापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः। प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधः कापि सुकृतम् " ॥१॥ अर्थात् जलमे पत्थर तीरता नहीं है ? सूर्य पश्चिम दिशा मे उगता नहीं है ? अग्नि कदापि शीतल नहीं है ? पृथ्वी कभी अधो भाग मे नही जाती है ? पर उपरोक्त कार्य किसी देव प्रयोगसे हो भी जा तब भी प्राणीयों की हिंसा से तो सुकृत कभी नहीं हो सक्ता है कारण कि यावन्ति पशुरोमाणि, पशु गात्रेषु भारत ? तावद् वर्षे सहस्राणि, पञ्चन्ते पशुघातकाः।. . जीतने पशु के शरीर मे रोम ( बाल ) है इतने हजार वर्ष तक पशु को मारणेवाला नरकमे जा के दुःख भोगवता है । हे गजन् । प्राणियों को प्राण कैसा वल्लभ है दीयते म्रिय माणस्य कोटिर्जीवित एव या। धनकोटि परित्यज्य जीवो जीवितु मिच्छति । अर्थात् मृत्यु के समय एक तरफ कोटी सुवर्ण देनेवाला है और दूसरी तरफ जीवित देनेवाला है तो वह जीव सुवर्ण को त्याग के जीवना ही चाहेगा ? हे नीतिज्ञ महानुभाव, जरा आप अपनि नीतिपर देखिये ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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