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जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. - उपर्युक्त चारों वर्णोकी स्थापना अपनी २ कार्य प्रणालीका के अनुसार, किसीकी हकुमतसे नहीं, प्रत्युत सेवाभावको ही लक्ष रख करके हुयी थी। उस जमानेमें सेवाकी ही किम्मत बढ़ चढ़कर समझी जाती थी, उसीका यह प्रबल उदाहरण है । प्रकृविका एक यह भी अटल सिद्धान्त है कि कामके साथ २ यदि हरएक व्यक्ति को कुछ पुरस्कार मिलता रहे तो वह अधिक उत्साह के साथ अपने कार्यमें दत्तचित्त रहता है । यह व्यवहार-कुशलतां हमारे पूर्वाचार्योमें कम न थी । उन्होने वर्ण विभाग के साथ २ ही योग्य सामग्रीयाँ प्रदान कर दी थी। यह विभूति उन उन वणोंको अनुकूल भी थी । ब्राह्मणोंको मान, क्षत्रियोंको ऐश्वर्य, वैश्योंको विलासता और शूद्रोंको निश्चिन्तता इत्यादि । यहां तक कि ब्राह्मणों के समान किसीको मान नहीं क्यों कि तीनों ही वर्ण उनके साथ आदर सत्कार से पेश आते थे । क्षत्रियों के बराबर ऐश्वर्य नहीं क्यों कि उनके ही हाथमें राजतंत्र दे रखा था । वैश्यों के बराबर विलास नहीं कारण कि लक्ष्मीदेवीकी कृपा उनपर असीम थी। शुद्रोंके समान निश्चिन्तता नहीं क्यों कि शारीरिक परिश्रमके सिवाय उनको अणु मात्र भी चिन्ता का शिकार कभी भी न होना पडता था।
तीनोंही वर्ण, ब्राह्मणों के अधिकारमें रखते समय एक यह भी शर्त थी कि, ब्राह्मण वर्ग सदैव ऐश्वर्य और बिलासता से दूर रहे यानि विरक्त रहे । स्वार्थ लोलुपतावश धनोपार्जन न करे और धनका संग्रह भी न करें। यदि समाजमें कुछ न्यूनाधिक करने का