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भगवान् जम्बु आचार्य.
( १११ ) जिस कुंवर के साथ तुम्हारा विवाह होने वाला है वह संसार से उदासीन है । वह एक न एक दिन संसार के बन्धनों को तोड़, राज्य सदृश लक्ष्मी और कामिनी को तिलांजली दे दीक्षा अवश्य ग्रहण करेगा ही । तथापि उसका पिता विवाह कराने पर उतारू है। वह बरजोरी अपने पुत्र को बाध्य कर विवाह के लिये तैयार करता है। तुम्हारी अनुमति इस विषय में क्या है, निसंकोचपूर्वक कहा मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी इच्छाओं के विरुद्ध मैं कुछ करूं ।
पुत्रियोंने प्रत्युत्तर दिया की पिताजी ! निसंदेह हम अपना जीवन उस कुंवर पर समर्पित कर चुकी है। उसने हमारे हृदय में घर कर लिया है अतएव दूसरे पति के लिये हमारे मन में स्थान पाना असम्भव है। आप निसंकोच हमारा पाणी ग्रहण उस के साथ करवा दीजिये । पिताने पुत्रियां की बात ही मानना उचित समझ कर विवाह की खूब तैयारियां की । निर्विघ्नतया विवाह समाप्त हुआ । पिताने अपनी पुत्रियों को दहेज में इतना धन दिया कि सारे लोग उस की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । वह धन ९९ वें कोड़ सुनहैया था । विवाह के पश्चात् जम्बुकुमार रात्रि को महल में पधारे तो आठो त्रिएं सुन्दर वेश भूषन पहिन कर बचन चतुराई से अपनी ओर आकर्षित करती हुई जम्बुकुमार के पास आकर हावभाव दिखा कर अपने वश में करने का प्रयत्न करने लगी । पर भला उदासीन कुंवर पर इन बातों का क्या प्रभाव पडने का था ।
उधर प्रभव नाम का चोरों का सरदार अपने साथ ५००