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जैन जातिमहोदय प्रकरण छट्ठा.
मनुष्य का काम न था, इस के लिये तो एक दिव्य शक्ति की परमावश्यकता थी ।
प्रकृति का यह एक अटल नियम है कि जब शुक्लपक्ष का चन्द्र अपनी उन्नत्ति करता हुआ परमसीमा तक पहुँच जाता है तब कृष्णपक्ष का आरम्भ होता है, और जब कृष्णपक्ष आखिरी इद्द को प्राप्त कर लेता है, तब पुनः शुक्ल पक्षका प्रादुर्भाव हुआ करता है । यह ही दशा भारत की भी हुयी । भारत उस समय उन्नत्ति के उच्च शिखर पर पहुँच कर, अवनति के गहरे खड़े में जा गिरा था, किन्तु इस का भी तो उद्धार होना ही था। ठीक उसी समय हमारे पूज्य पूर्व महर्षिपुङ्गवों की ( जिन का लक्ष स्व कल्याण के साथ पर कल्याणका भी था ) शितल द्रष्टि त्रासित संसार के उपर पडी - फ़िर तो देर ही क्या थी ? उन्होंने अंधकार कीच में डूबे हुये समाज-उद्धार के लिये अनेक उपाय सोचे और खीरी निश्चय किया कि संसार में शान्ति बनी रहे, अतः चार मुख्य - आवश्यक साधनों का आयोजन होना चाहिये । (१) सद्ज्ञान, (२) उत्कृष्ट पुरूषार्थ (शौर्य), (३) पर्याप्त द्रव्य, (४) सेवाभाव | इन चारोंमें से एक के भी न होने से कार्य में सफ़लता होनी दुःसाध्य ही नहिं किन्तु असम्भव है । क्यों कि सद्ज्ञान-श्रेष्ट बुद्धि से सद्-असद्, नित्य - अनित्य, सार - असार आदि वस्तुओं का वास्तविक स्वरुपक ज्ञान होता रहेगा, उत्कृष्ट पुरुषार्थ या शौर्य से राष्ट्र व समाज का संरक्षण होता रहेगा और दिन ब दिन क्रान्ति होगी । पर्याप्त द्रव्य द्वारा देश व समा