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जैन धर्म की उन्नति.
ने जैन धर्म की खुब उन्नति करी थी इतना ही नहीं पर जैन धर्म एक विश्वव्यापि धर्म है-जहां जहांपर जैनाचार्यों का विहार न हुवा वहां वहां पाखण्डि लोगों ने अधर्म और व्याभिचार से मुग्ध लोगों को भ्रम मे डाल दीये है इत्यादि ( देखो पहला प्रकरण में जैन धर्म की प्राचीनता ) और जैन धर्म नास्तिक भी नहीं है कारण जैन धर्म जीवाजीव पुन्य पाप आश्रव संवर निर्जरा बन्ध
और मोक्ष तथा लोकप्रलोक स्वर्ग नरक तथा सुकृत करणि का सुकृत फल दुःकृतकरणि का दुःकृतफलकों मानता है इत्यादि जैन आस्तिक है। नास्तिक तो वह ही है कि पुन्य पाप का फल.व यहलोक परलोक न माने फिर नास्तिकों का यह लक्षण है कि वह व्यभिचार में भी जनता को धर्म बतला के धोखा देता है इत्यादि आगे ईश्वर के विषय में यह बतलाया गया था कि जैन ईश्वर को बराबर मानते है जो सर्वज्ञ वीतराग परम ब्रह्म ज्योती स्वरुप जिसको संसारी जीवों के साथ कोइ भी संबंध नहीं है, लीला-क्रीडा रहित, जन्म मृत्यु योनि अवतार ले आदि आदि कार्यों से सर्वथा मुक्त हो उन परमेश्वर को जैन ईश्वर मानते है न कि बगल में प्यारी को ले बैठा हो, हाथमें धनुष ले रखा हो, केइ योनीमे ही अपना डेरा लगा रखा हो, केइ अश्वारूढ हो रहे हो, केइ पशुबलि में ही मग्न हो रहे हो, एसे एसे रागी द्वेषी विकारी निर्दय व्यभिचारीयों को जैन कदापि ईश्वर नहीं मानते है। जैनों के देव नग्न नहीं पर एक अलौकीकरूप सालंकृत दृश्य और शान्तिमय है इत्यादि विस्तार से उत्तर देने पर पाखण्डियों का मुंह श्याम और दान्त खटे हो गये। हाहो कर रास्ता