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________________ वेदों के प्रमाण. नाभिस्तु जनयेत्पुत्रं, मरुदेव्यां मनोहरम् । ऋषभं क्षत्रिय श्रेष्टं, सर्व क्षत्रस्यपूर्वकम् ॥ ऋषभाद्भारतोजज्ञे, वीर पुत्रशता ग्रज । राज्ये अभिषिच्य भरतं, महा प्रव्रज्या माश्रितः ॥१॥ अर्थ-नाभिराजा के यहां मरुदेवि से ऋषभ उत्पन्न हुए जिसका वडा सुन्दर रुप है जो क्षत्रियों में श्रेष्ट और सर्व क्षत्रियों कि श्रादि है और ऋषभ के पुत्र भरत पैदा हुवा जो वीर है और अपने १०० भाईओं मे वडा है ऋषभदेव भरत को राज देकर महा दीक्षा को प्राप्त हुवे अर्थात् तपस्वी हो गये । भावार्थ-जैन शास्त्रो में भी यह सब वर्णन प्राचीन समयसे इसी प्रकार है इससे यह भी सिद्ध होता है कि जिस भृषभदेव कि महिमा वेदान्तियों के ग्रन्थों मे वर्णन की है वह जैनों के आदि तीर्थकर है और जैन उस महापुरुषकों अपने पूज्य समझ के पूजते है नोट-वेदान्तियोंने ऋषभ देव कि सर्व कथा जैनियों से ही ली है कारण वेदान्ति लोग चौवीस अवतारों मे ऋषभदेव को पाठवा अवतार मानते है तो फिर क्षत्रियों का आदि पुरुष ऋषभदेव को कैसे माना जावे कारण सात अवतार तो इन के पूर्व हो गये थे वह भी नो क्षत्री ही थे क्षत्रियों के प्रादि पुरुष ऋषभदेव को तो जैनि ही मान सक्ते है कि वह ऋषभदेव को आदि तीर्थकर आदि क्षत्री मानते है । (७) महा भारत
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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