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कलिल देशका इतिहास (१८५) · यह भी बहुत सम्भव है कि शायद ब्राह्मणोंने " कलिङ्ग देश में पहुँच कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया हो। इसी हेतु उन्होंने कलिङ्ग के प्रवेश का भी निषेध किया ।
एक बार तो उस समय जैनों का पूरा साम्राज्य कलिङ्ग देश में हो गया पर आज वहाँ जैनियों का नाम निशान तक नहीं । इस का कारण सिवाय काल की कुटिलता के और क्या हो सकता है । तथापि दूरदर्शी जैनियोंने अपने धर्म के स्मृति के हित चिहरूप से कलिङ्ग देश में कुछ न कुछ तो कार्य अवश्य किया । वे सर्वथा वंचित नहीं रहे । इतिहास साफ साफ बताता है कि विक्रम की बाहरवीं शताब्दि तक तो कलिङ्ग देश में जैनियों की पूर्ण जाहाजलाली थी। इतना ही नहीं विक्रम की सोलहीं शताब्दि में सूर्यवंशी महाराजा प्रतापरुद्र वहाँ का जैनी राजा था । उस समय तक तो जैनधर्म का अभ्युदय कलिग देश में हो
हा था। पर प्रश्न यह उपस्थित होना है कि सर्वथा जैनधर्म यकायक कलिङ्ग में से कैसे चला गया । इस पर विद्वानों का मत है कि जैनों पर किसी विधर्मी राजा की निर्दयता से ऐसे प्रत्याचार हुए कि उन्हें कलिङ्ग देश का परित्यागन करना पड़ा । यदि इस प्रकार की कोई आपत्ति नहीं आती तो कदापि जैनी इस देश को नहीं छोड़ते।
केवल इसी देश में अत्याचार हुआ हो ऐसी बात नहीं है, विक्रम की पाठवीं नौवी शताब्दि में महाराष्ट्र में भी जैनों को इसी