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जैनेतर विद्वानों की सम्मतिए.
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बौद्ध लोग कर्म सूक्ष्म पुद्गल नहीं मानते है जिसमें कर्मोका श्राश्रव हो सके । संवरके स्थानपर वे श्राश्रवको व्यवहृत करते हैं । प्रव यह प्रत्यक्ष है कि बौद्ध धर्ममें श्राश्रव का शब्दार्थ नहिं रहा । इसी कारण यह आवश्यक है कि यह शब्द बौद्धों में किसी अन्य धर्मसे जिसमें यह यथार्थ भावमे व्यवहृत हो अर्थात् जैन धर्मसे लिया गया है । बौद्ध संवरका भी व्यवहार करते है अर्थात् शील संवर और 1 क्रिया रूपमें संवरका यह शब्द ब्राह्मण श्राचार्यो द्वारा इस भावमें व्यवहृत नहीं हुए है अतः विशेषतया जन धर्मसे लिये गये है । जहां यह अपने शब्दार्थ रूपमें अपने यथार्थ भावको प्रकट करते है । इस प्रकार एक ही व्याख्या से यह सिद्ध हो जाता है कि जैन धमका काय सिद्धांत जैन धर्ममें प्रारंभिक और अखंडीत रूपमें पूर्व से व्यवहृत है और यह भी सिद्ध होता है कि जैन धर्म बौद्ध धर्मसे प्राचीन है. ( जैन भास्करोदय सन् १९०४ ई. से उध्धृत. ) इत्यादि जैन धमकी प्राचीनता स्वतंत्रा और विशालता के विषय कोतक सम्मतिए मिलती है और जैसे जैसे इतिहासकी खोज होती जावेगा वैसे वैसे जैन धर्मकी महत्वत्ता सिद्ध होती जायगीं. और विद्वानों का यह ख्याल अवश्य हो जायगा कि जगनको दुःखों से मुक्त कर सच्चा सुखका देनेवाला एक जैन धर्म ही है. शम्.
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इति जैन जातिमहोदय प्रथम प्रकरण समाप्तम् .