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________________ जैन जाति महोदय प्रकरण छा. इ. स. १८८१ में जैन जनता की संख्या १५०००००। इ० स० १८९१ , , , , १४,१६,६३८ इ० स: १६०१ , , , , १३,३४,१४० इ० स० १९११ ,, ,, , , १२,४८, १.८२ इ० स० १९२१ , , , , ११,७८,५९६ इस हिसाब को देख कर के किस जैन के हृदय में दुःख दावानल नहीं भमक उठेगा ? हा ! यह कैसा संहार ! हाय यह कैसा पतन ! ! हाय यह कैसा घात !!! जैनों, इस हिसाब को देख कर अपने नेत्रों से दो बून्द खून की बहाने के सिवाय तुमारे पास कुछ रहा है कि तुम इस घटती हुई संख्या के लिए कुछ प्रयत्न कर सको ? हम विश्वास पूर्वक कह सक्ते है कि भारत में तो क्या पर पृथ्विी पट्टपर ऐसी कोई भी जाति या धर्म नहीं होगा कि जिस की बुरी दशा जैनियों के माफिक हुई हो । मर्दुम सुमारी के कोष्टक से स्पष्ट हो जाता है कि एक जैन जातियों के सिवाय सब जातियों संख्या में बढती गई और उन्नति करती गई है। हां ! जैन प्रतिवर्ष हजारों, लाखों, और कौडों रूपये खर्चकर धर्मोनति किया करते हैं और जैन समाचार पत्रों के कालम के कालम भर देते हैं कि अमुक शेठजीने उपधान उजमणा किया नए मंदिरों की प्रतिष्टा या पुराणों के जिर्णोद्धार कराए । अमुक शेठजीने मेल्ले को आमन्त्रण दिया, अमुकने संघ निकाला, स्वामीवास्सल्य किया। साथ में अपने २ गुरुदेवों के भी यशोगान गाए जाते हैं । यपि यह धर्म कार्य आदरणिय है पर जब समाज ही रसातल को
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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