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शुद्धि और संग
( १३५ ) के बाद तो नए जैन बनाने का कार्य बिल्कुल ही बंध होगया था, इधर मत मतान्तर भी विशेष रूप में फैल गए और आपसी क्लेश कदाहने तो इतना उम्र रूप धारण कर लिया कि शान्ति का नाम निशानतक भी नहीं रहा। इधर समाज में संकुचितताने भी इतना जोर बढा दिया कि जिन जैन जातियों के साथ प्राचीन समय से बेटी रोटी व्यवहार था वहां बेटी व्यवहार भी बन्द कर दिया जिस से बहुतसी जातियों धर्म से पतित हो अन्य धर्म में चली गई इत्यादि कारणों से जैन जनता की संख्या दिन व दिन कम होती गई ।
इस समय अंग्रेजो के शासनकाल में इस्वी सन् १८८१ की पहिली मर्दुमसुमारी में जैन जनता की संख्या मात्र पनरा लक्ष ( १५००००० ) की रह गई ।
अब जरा हृदयचक्षु खोल कर हिसाब लगाइए कि -
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(१) सम्राट् सम्प्रतिराजा से वनराज चावड़ा तक करीबन् एक हजार वर्षो के अंदर चालीस क्रोड़ के वीस क्रोड़ जैनी रह गए । ( २ ) महाराज वनराज चावड़े से कुमारपाल राजा के राज्य तक चारसो वर्षो में वीस क्रौड़ के बारह क्रौड़ जैन संख्या रह गई । ( ३ ) महाराज कुमारपाल से बादशाह अकबरतक ४०० चार सौ वर्षो में बारह क्रौड़ से घटकर एक क्रौड़ ही जैन रह गए। ( ४ ) बादशाह अकबर से अंग्रेजी पहिली मर्दुम सुमारी तक करीब चारसौ वर्षोंमें एक क्रौडसे पंद्रह लाख (१५०००००) जैन जनता रह गई आगे दश २ वर्षों की गिनती में भी देखिए.