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(१३४) जैन जाति महोदय प्रकरण छला. रूप धारण किया इधर पाणी के बुदबुदों की भान्ति 'गच्छमत व पन्थों ' का प्रादुर्भाव होने लगा, जो शक्ती सामाजिक कार्यों में काम ली जाती थी उसका ही दुरूपयोग समाज पतन में होने लगा, क्रमशः परमार्हत् महाराज कुमारपाल के शासन तक जैनों की संख्या बारह क्रोड की रह गई तथापि हमारे प्राचार्यों का गृहक्लेश शान्त नहीं हुआ पर दिन व दिन बढता ही गया जनता गच्छमतों में विभक्त हो अपनी शक्ती संगठुन के तन्तुओं का दुरूपयोग करने में ही अपना गौरव समझने लगी। प्राचार्य महाराज भी एक दूसरे का पग उखाडने में और अपनी वाडा बन्धी जमाने में इतने तो मशगुल बन गए कि उनको जैन जनता की संख्या के विषय में मानों मौनव्रत ही धारण कर लिया हो । कारण उनको जैन जनता की संख्या से प्रयोजन ही क्या था ! उन कों तो अपनी वाडाबन्धी बढानी थी इस भयंकर दशा का फल यह हुआ कि सम्राट बादशाह अकबर के समय शासन सम्राट जगद्गुरु भट्टारक आचार्य विजयहीरसूरि के मंडे ली प्रयत्न और महा परिश्रम करनेपर भी एक क्रोड की संख्या में जैन जनता अस्तित्व रूप में रही।
आचार्य विजय हरिसूरिके समय तक तो जैसे जैनों की संख्या कम हुआ करती थी वैसे ही जैनाचार्य राजपुतादि जातियों को प्रतिबोध देकर नए जैन भी बनाया करते थे, इस कारण से जैनों की वस्ती एक कोडतक की रह गई थी पर श्रीविजयहीरसूरि