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________________ प्राचार्य शियंभवमट्ट. की ओर गये और शिय्य भव भट्ट के समक्ष जाकर उपरोक्त वाक्य की कई बार पुनरावृत्ति की। शिय्यं भव भट्टने विचार किया कि ये निरापेक्षी जैन मुनि असत्य नहीं बोलते । क्या मेरा श्रम सब व्यर्थ है ? क्या सचमुच मैं प्रतिकूल मार्ग का पथिक हूँ ? सत्यासत्य का निर्णय करने के हित वह अपने गुरु के पास खड्ग लेकर गया और पूछा कि आप सत्य सत्य सप्रमाण कहिये कि इस क्रियाकाण्ड का क्या फल है ? यदि तुमने संतोषप्रद उत्तर 'नहीं दिया तो इसी तलवार से तुम्हारी खबर लँगा । गुरुने देखा कि अब असत्य कहने से जान जोखों में है तो सत्य हाल कह दिया कि वत्स ! इस यज्ञ के स्तम्भ के नीचे जैन तीर्थकर शांतिनाथ स्वामी की मूर्ती है और इस मूर्ती के अतिशय से ही अपना यज्ञ का कार्य चल रहा है। अन्यथा अपना इतना प्रभाव कभी नहीं पड़ सकता था। यह समाचार सुनते ही शिय्यंभव भट्टने यज्ञ स्तम्भ को हटा कर शांतिनाथ भगवान की मूर्ती निकाल कर दर्शन किये । दर्शन करते ही उसे प्रतिबोध हुमा। मिथ्या गुरु को त्याग कर मापने सम्यक् दर्शन का अवलम्बन लिया, यज्ञभागादि की निष्ठुर क्रियाओं से दूर होकर शुद्ध जैनधर्म के चारित्र को पालना प्रारम्भ किया । आपने प्रभव प्राचार्य के पास जाकर दक्षिा ग्रहण की । दीक्षा लेकर मापने गुरुकुल में रह चौदह पूर्व का अध्ययन एवं मनन किया। प्राचार्य प्रभव सूरीने प्राचार्य पद का भार शिव्यंभव मुनि
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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