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________________ (११८) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. को दे निवृत्ति मार्ग पर चलते हुए व्यवहारगिरि पर्वतपर अनसन लेकर वीरात् ७५ सम्बत् को स्वयं स्वर्ग घाम पधारे । [४] चौथे पट्ट पर शिय्यंभवसूरी बड़े ओजस्वी एवं निस्पृह हुए | जिस समय आपने यज्ञ आदि को त्याग कर प्रभव प्राचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की थी उस समय आपकी धर्म पनि गर्भवती थी । इस गर्भ से मनक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब यह बालक आठ वर्ष का हुआ तो सह पाठियों से प्रश्न पूछे जानेपर अपनी माता को आकर पूछने लगा कि मेरे पिताजी कहाँ हैं ? माताने अपने पुत्र मनक को उत्तर दिया कि बेटा " तेरा पिता तो जैन साधु है, जब तू मेरे गर्भ में था तब उन्होंने एक जैनाचार्य के पास दीक्षा लेली थी। आज वे मुनि राजा महाराजामों से पूजे जाते हैं । तेरे पिता अपनी योग्यता से वहाँ भी पाज आचार्य पदपर सुशोभित हैं।" जब पुत्रने यह बातें सुनी तो उस की भी इच्छा हुई कि एकवार चलकर देख तो आऊं कि वे प्राचार्य कैसे हैं ? विचार करते करते उसने मिलने के लिये प्रस्थान करना निश्चय किया । उसने सोचा कि कदाचित माताजी मेरे प्रस्ताव से सहमत न हो अतएव बिना पूछे चुपचाप यहाँ से भग जाना ही ठीक है । 'मनक' अन्त में घरसे बाहिर निकल गया और शिय्यं भव प्राचार्य का समाचार पूछता पूछता चम्पानगर में पहुँच गया | नगर के द्वारपर यह बैठा था कि उसने प्राचार्यश्री को प्रवेश करते हुए देखा । उसने उन्हें जैन मुनि समझकर पूछा कि क्या आप को ज्ञात है कि मेरे
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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