________________
( ११६ )
जिन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
जिस प्रकार प्रभव संसार में लूटने खसोटने में शूरवीर था उसी भांति दीक्षित होने पर कर्म काटने में पूर्ण योद्धा थे । किसी ने ठीक ही तो कहा है, " कर्म शूरा ते धर्म शूरा " । प्रभव मुनि चौदह पूर्वज्ञानी और सकलशास्त्र पारंगत थे अपने जैन धर्म का खूब अभ्युदय किया । आपने अपने श्रज्ञावर्ती सहस्रों साधुओं का संगठन खूब किया । हजारों नरनारियों को दीक्षित कर आपने जैन शासन के उत्थान में पूरा हाथ बँटाया |
आपने अन्तिम अवस्था में श्रुतज्ञानद्वारा उपयोग लगा कर जानना चाहा कि आचार्यपद से किस को विभूषित करूँ पर कोई साधु दृष्टिगोचर नहीं हुआ तब आपने श्रावक वर्ग की ओर निरी क्षण किया तो कोई होनहार पुरुष नहीं जँचा । आपने आश्चर्य किया कि मेरे सम्मुख आज करोड़ों जैनी हैं क्या कोई भी आचार्य पद के योग्य नहीं है ? तो अब किया क्या जाय ? तब आपने जैनेतर लोगों की ओर दृष्टिपात किया तो आपने समस्या हल होने की सम्भावना अनुभव की। आपको ज्ञात हुआ कि राजगृह नगर का रहनेवाला यक्ष गोत्रिय यजुर्वेदीय यज्ञारंभ करता हुआ शय्यंभव भट्ट इस पद के योग्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई नहीं है । तब आपने अपने साधुओं को उस स्थान की ओर भेज कर यह संदेश भेजा कि वहां यज्ञ करनेवालो को जाकर बार बार कहो कि " अहो कष्टं महोकष्टं तत्वं न ज्ञायते परम् । इस सूत्र को बार बार उच्चारण करो तथा वापस लौट
आओ | आचार्य श्री की आज्ञानुसार मुनिगरण उस शान्त स्थान
1
ܕܪ